Wednesday, April 1, 2015

अक्सर प्यार होते ही हम
उस रिश्ते का नाम देना चाहते है
ऐसा क्यूँ भला
क्यों हम प्यार को बाँधना चाहते है ..
नाम की सीमा में
हम भागवान को भी प्यार करते है
पर कभी कोई कोशिश नही करते उससे बाँधने कि...
फिर इंसान के प्यार को नाम कि क्यों जरुरत होती है...
जबकि वो सिर्फ महसूस होता है ..
उस में पाने जैसा कुछ है ही नही ...
बस एक पवित्र नदी कि दो किनारे है
जो हर सुख दुःख में साथ रहते है .....
पर मिलते कभी नही ...
और ना एक दुसरे को छोड़ते है ...
अपने में सब कुछ समेटते हुए
अपना वजूद खो कर
बिना किसी शिकवे शिकायत के
साथ चलते रहते हैं
और
सागर में समा कर ....
अपना अस्तित्व एक साथ मिटा देते है ..
और
हमेशा साथ रहने का एहसास उनके ...
कभी ना मिल पाने के दर्द को
कम कर देता है

नरेश मधुकर ©
जय श्री कृष्ण ...

वो हाथ हमसे छुड़ा रहा था ...

वो अपना क़िस्सा सुना रहा था
मैं अपनी उलफत छिपा रहा था

मुँह मुझ से आज फेर कर खड़ा है
कभी जो मुझसे जुड़ा रहा था

मैं देखता हूँ उसे नजरों से गिरते
वो ख़ुद की फ़ितरत बता रहा था
 
वो उस मोड़ तक कभी न आया
मैं जिस मोड़ पर खड़ा रहा था

छोड़ आये दुनियाँ हम जिसकी ख़ातिर
वो हाथ हमसे छुड़ा रहा था ...

नरेश मधुकर ©