अश्क बारिश में छिपाकर कोई मुस्कराता नहीं
हर किसी को मधुकर यह हुनर आता नहीं
हैं नहीं आसान इस दौर के बन कर रहें
अपनी सलीबें काँधे पर कोई उठा पाता नहीं
जितने काँधे उतने सर अब दिखाई देते नहीं
कट जातें हैं सर जो इन्हें खुद झुका पाता नहीं
भूखे बच्चें जलती बस्ती और चंद कच्चे मकान
इनके सिवा अब शहर कुछ और दिखा पाता नहीं
ऐसे जलतें मंज़रों से गुज़र कर आये हैं हम
इतनी आसानी से हम को कोई सता पाता नहीं
बीती मुद्दत जा चुके सब छोडकर मेरा मुकाम
उनका दिया दर्द कमबख्त अब तलक जाता नहीं ...
नरेश मधुकर
copyright © 2014
हर किसी को मधुकर यह हुनर आता नहीं
हैं नहीं आसान इस दौर के बन कर रहें
अपनी सलीबें काँधे पर कोई उठा पाता नहीं
जितने काँधे उतने सर अब दिखाई देते नहीं
कट जातें हैं सर जो इन्हें खुद झुका पाता नहीं
भूखे बच्चें जलती बस्ती और चंद कच्चे मकान
इनके सिवा अब शहर कुछ और दिखा पाता नहीं
ऐसे जलतें मंज़रों से गुज़र कर आये हैं हम
इतनी आसानी से हम को कोई सता पाता नहीं
बीती मुद्दत जा चुके सब छोडकर मेरा मुकाम
उनका दिया दर्द कमबख्त अब तलक जाता नहीं ...
नरेश मधुकर
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