Friday, June 20, 2014

मचा है चारो तरफ कैसा ग़दर यारों

मचा हैं  चारों तरफ   कैसा ग़दर यारों
नहीं लगता  यह पहले सा शहर यारों 

तिशनगी ऐ सियासत लहू से भी न बुझी 
सूखने को है  अब यह  सुर्ख समंदर यारों

आजकल दिन भूखे और शामें कातिल
शुक्रे खुदा जो  बेटी आ जाये घर यारों

रात सरहद पर कट गए सैकड़ों बेटे
वापस लाने है  उनके भी सर यारों

जाने किस बेवजह झगडे में मधुकर 
मेरे मुल्क को लग गयी है नज़र यारों

नरेश मधुकर
©2014

Tuesday, June 17, 2014

मैं भटकता ही फिरा हूँ ...

मैं भटकता ही फिरा हूँ  रहगुज़र से रहगुज़र
आशियाँ को मेरे जाने लग गयी किसकी नज़र

राहे वीराना भटकते मिल गयी ख्वाईशें दो चार
निकल पड़ा  मैं साथ उनके ढूँढने अपनी डगर

अय आसमां ऐ बुलंदी तेरी हैं औकात क्या
लांघ देते तुझको भी गर काटता न वक़्त पर

इन दरकती दीवारों का गम ज़माना क्यूँ करे
टूट कर बिखरा है जो वो तेरा घर वो मेरा घर

बेच कर गैरत जीए तो मधुकर क्या जीए
कट सके तो काट डालो अब नहीं झुकता ये सर

नरेश मधुकर
©2014

दो पल

दो पल मिले थे प्यार के हंस कर गुज़ार दिए
इन दो पलों ने लेकिन  सपने हज़ार दिए

सूरज डूब गया तो साया भी चला गया
बुरे वक्त ने मधुकर कई चश्में उतार दिए

संभल सका न हमसे ख़ुद अपना ही नशा
उस पर यारों ने हमको अपने ख़ुमार दिए

यक़ीन न हो तो पूछो जलती शमां से तुम
सजी महफ़िलों ने अक्सर सूने दयार दिए

किस किस से करते हम वफाओं का हिसाब
जिसने जो गम देने थे  वो सरे बाज़ार दिए 

नरेश मधुकर
©2014