Sunday, September 21, 2014

क़ातिल नहीं मैं

मैंने माना कि तेरी मंजिल नहीं मैं
पूछो ज़रा उनसे जिन्हें हासिल नहीं मैं

बैठ जाता हैं दिल यह सोचने भर से
तिरे ख़्वाबों में अब तक शामिल नहीं हैं

चल दिए वो दूर मुझसे बेरूख होकर
उनकी उल्फत के शायद क़ाबिल नहीं मैं

रहने दो खुश उनको 'मधुकर' मेरे बिन
जाने दो इतना भी संग दिल नहीं मैं

पराई   सलीबें    उठाई     है  अक्सर
कैसे समझाऊ तुमको कातिल नहीं मैं

नरेश मधुकर
©2014