Tuesday, April 22, 2014

ज़िंदगी




















लम्हां लम्हां हादसों की किताब ज़िंदगी
हर पल जैसे इक नया इंकलाब ज़िंदगी

कौन रखता हैं मधुकर मोहब्बत में हिसाब
शिद्दत से हमने जी ली बेहिसाब ज़िंदगी

जब से जा बैठे हम तेरी सोहबत में सनम
लगने लगी थी हमको लाजवाब ज़िंदगी

ले गयी लहरें साथ में मिटटी के महल सभी
कतरा कतरा पानी पे लिखा ख्वाब ज़िंदगी

गुमसुम जा बैठे छोडकर तिरी महफ़िल का दयार
किस किस को आखिर देती जवाब ज़िंदगी

नरेश मधुकर © 2014

Monday, April 21, 2014

दरिया

आते आते तिरे दर तक भटक गया दरिया
तिरी खुशबू से  जैसे  महक गया दरिया

कौन कहता हैं उल्फत सिर्फ इन्सा को होती है
मौजों की मोहब्बत में  बहक गया दरिया

वो तिरा आना लिपट कर फिर चले जाना
तपती रेत सा मुट्ठी से सरक गया दरिया

वो मस्त हवा,कातिल मंज़र वो आँखें नम
तिरे संग संग जैसे  सिसक गया दरिया

क्या फर्क हो मयखाना या बुतखाना मधुकर  
इनकी हदों  तक आकर  छलक गया दरिया 

मिल के बिछड़े थे जिस मोड पे मुद्दतों पहले 
उसी मंज़र पे  जैसे  अटक गया दरिया ...

नरेश मधुकर © 2014